खबर चौक: सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को हटाने की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढांचे का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने पूछते हुए कहा, “आप नहीं चाहते कि भारत धर्मनिरपेक्ष हो?”
यह सुनवाई सोमवार को हुई, जहां शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि ‘समाजवाद’ शब्द का अर्थ पश्चिमी संदर्भ में सीमित नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि इसका एक अर्थ समान अवसर प्रदान करना भी हो सकता है। न्यायमूर्ति खन्ना ने यह भी उल्लेख किया कि कई न्यायालयों के निर्णयों में धर्मनिरपेक्षता को संविधान की मुख्य विशेषता माना गया है। उन्होंने बताया कि भारत ने धर्मनिरपेक्षता का एक अलग मॉडल अपनाया है, जो फ्रांसीसी मॉडल से भिन्न है।

यह याचिका वरिष्ठ भाजपा नेता डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी और बलराम सिंह द्वारा दायर की गई थी, जिसमें 42वें संशोधन को चुनौती दी गई है, जो आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने लागू किया था।याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने कहा, “हम यह नहीं कह रहे हैं कि भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं है, हम संशोधन को चुनौती दे रहे हैं।” उन्होंने डॉ. भीमराव अंबेडकर के हवाले से बताया कि ‘समाजवाद’ शब्द का समावेश व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश लगा सकता है। जवाब में, न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा कि समाजवाद का अर्थ समान अवसर और संपत्ति का समान वितरण भी हो सकता है, और उन्होंने पश्चिमी दृष्टिकोण को छोड़ने की अपील की।
याचिकाकर्ता ने संविधान की प्रस्तावना के 26 नवंबर, 1949 को मौजूद रूप को एक निश्चित घोषणा बताया और कहा कि ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को जोड़ने वाला कोई भी बाद का संशोधन मनमाना था।न्यायमूर्ति खन्ना ने यह भी स्पष्ट किया कि 1976 के संशोधन में जोड़े गए शब्दों को कोष्ठक में रखा गया था, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि वे अतिरिक्त शब्द हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की गहराई से जांच करने पर सहमति जताई और इसे 18 नवंबर को आगे की सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया।